गीतांजलि पोस्ट/श्रेयांस
जानवरों की लाशें खाने के परिणाम-महाविनाश
मांसाहार पर वैज्ञानिकों ने शोध की है…
खासतौर पर मांसाहार की आदत के कारण प्रतिदिन मारे जाने वाले पशुओं की संख्या जो दिनोंदिन बढ़ रही है।
सूजडल (रूस) में पिछले दिनों हुए भूस्खलन और प्राकृतिक आपदा पर हुए एक सम्मेलन में भारत से गए भौतिकी के तीन वैज्ञानिकों ने एक शोधपत्र पढ़ा। डॉ. मदन मोहन बजाज, डाॅ. इब्राहीम और डाॅ. विजयराजसिंह के अलावा दुनिया भर के 23 से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए शोधपत्र के आधार पर कहा गया कि भारत, जापान, नेपाल, अमेरिका, जॉर्डन,अफगानिस्तान, अफ्रीका में पिछले दिनों आए तीस बड़े भूकंपों में आइंन्स्टाईन पेन वेव्ज -ईपीडब्ल्यू (Einstein Pain Waves – EPW) बड़ा कारण रही है।
इन तरंगों की व्याख्या यह की गई है कि कत्लखानों में जब पशु काटे जाते हैं तो उनकी अव्यक्त कराह, फरफराहट, तड़प वातावरण में तब तक रहती है जब तक उस जीव का मांस, खून, चमड़ी पूरी तरह नष्ट नही होती ।
उस जीव की कराह, खाने वालों से लेकर पूरे वातवरण मे भय रोग और क्रोध उत्पन्न करती है। यों कहें कि प्रकृति अपनी संतानों की पीड़ा से विचलित होती है।
अध्ययन मे बताया गया है कि प्रकृति जब ज्यादा क्षुब्ध होती है तो मनुष्य आपस में भी लड़ने भिड़ने लगते है, चिडचिडे हो जाते है और विभिन्न देश प्रदेशों में दंगे होने लगते हैं।
सिर्फ स्वाद के लिए बेकसूर जीव जंतुओं की हत्या ही इस तरह के दंगों का कारण बनती है और कभी कभी आत्महत्या का भी ।
ज्यादातर मामलों में प्राकृतिक उत्पात, जैसे अज्ञात बीमारियाँ, हार्टअटॅक, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, भूकंप, ज्वालामुखी के विस्फोट जैसे संकट आते हैं।
इस अध्ययन के मुताबिक एक कत्लखाने से जिसमें औसतन पचास जानवरों को मारा जाता है 1040 मेगावॅट ऊर्जा फेंकने वाली ईपीडब्ल्यू पैदा होती है।
दुनिया के करीब 50 लाख छोटे बड़े कत्लखानों में प्रतिदिन 50 लाख करोड़ मेगावॅट की मारक क्षमता वाली शोक तरंगे या ईपीडब्ल्यू पैदा होती है।
विश्व के 700 से अधिक वैज्ञानिकों सहित अनेक डाक्टरों के सम्मेलन में माना गया कि कुदरत कोई डंडा ले कर तो इन तंरगों के गुनाहगार लोगों को दंड देने नहीं निकलती। उसकी एक ठंडी सांस भी धरती पर रहने वालों को कंपकंपा देने के लिए काफी है।
कत्लखानों में जब जानवरों को कत्ल किया जाता है तो बहुत बेरहमी के साथ किया जाता है, बहुत हिंसा होती है, बहुत अत्याचार होता है। जानवरों का कत्ल होते समय उनकी जो चीत्कार निकलती है, उनके शरीर से जो स्ट्रेस हारमोन्स निकलते है और उनकी जो शोक वेब्ज निकलती है वो पूरी दुनिया को तरंगित कर देती है, कम्पायमान कर देती है।
परीक्षण के दौरान लॅबोरेटरी में भी जानवरों पर ऐसा हीं वीभत्स अत्याचार होता है।
जानवरों को जब काटा जाता है तो बहुत दिनों तक उनको भूखा रखा जाता है और कमजोर किया जाता है, फिर उनके ऊपर 80 डिग्री सेंट्रीगेड गर्म पानी की बौछार डाली जाती है, उससे उनका शरीर फूलना शुरु हो जाता है, तब गाय भैंस बकरी तड़पना और चिल्लाने लगते हैं तब जीवित स्थिति में उनकी खाल को उतारा जाता है और खून को भी इकठ्ठा किया जाता है। फिर धीरे धीरे गर्दन काटी जाती है, एक एक अंग अलग से निकाला जाता है।
आज का आधुनिक विज्ञान ने ये सिद्ध किया है के मरते समय जानवर हो या इन्सान अगर उसको क्रूरता से या उम्र पूरी होने के पहले मारा जाता है तो उसके शरीर से निकलने वाली जो चीख पुकार है उसकी वाइब्रेशन में जो निगेटिव्ह वेव्स निकलते हैं वो पूरे वातावरण को बुरी तरह से प्रभावित करते है और उससे सभी मनुष्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, खासतौर पर सबसे ज्यादा असर ऐसे जीव का उन मनुष्यों पर पड़ता है जो उसका मांस खाते है और ये दुष्प्रभाव एक बार खाने के बाद कम से कम 18 महीने से ज्यादा तक रहता है ।
बड़ी बात ये है कि खाने वाले के परिजन ओर अधिक तनावग्रस्त, दुखी व भयंकर रोगों से पीडित होते जाते है। इससे मनुष्य में जिद करने, गाली देने, चोरी करने, दूसरों का धन हड़पने के साथ अत्यंत क्रोध व हिंसा करने की प्रवृत्ति बढ़ती है, जो अत्याचार और पाप पूरी दुनिया में बढ़ा रही है ।
अफ्रीका के दो प्रोफेसर, दो जर्मनी, दो अमेरिका के, एक भारतीय मदनमोहन और चार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने अपने अपने हेड मार्क फीस्ट्न, डेविड थॉमस, जुंनस अब्राहम व क्रिओइबोँद फिलिप् के साथ बीस साल इस विषय पर रिसर्च किया है और उनकी रिसर्च ये कहती है कि जानवरों का जितना ज्यादा कत्ल किया जायेगा जितना ज्यादा हिंसा से मारा जायेगा उतना ही अधिक दुनिया में भूकंप आएंगे, जलजले आएंगे प्राकृतिक आपदा आयेंगी उतना ही दुनिया में संतुलन बिगड़ेगा और लोग दुखी, तनावयुक्त व हार्टअटॅक से पीडित होंगे ।
लाश खाना छोड़ें और शाकाहारी बनें ।